Bhagavad Gita: Chapter 6, Verse 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते |
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते || 4||

यदा-जब; हि-निश्चय ही; न-नहीं; इन्द्रिय-अर्थेषु इन्द्रिय विषयों के लिए; न कभी नहीं; कर्मसु-कर्म करना; अनुषज्जते-आसक्ति होना; सर्व-सङ्कल्प-सभी प्रकार के कर्म फलों की कामना करना; संन्यासी-वैरागी; योग-आरूढ:-योग विज्ञान में उन्नत; तदा-उस समय; उच्यते-कहा जाता है।

Translation

BG 6.4: जब कोई मनुष्य न तो भौतिक विषयों में और न ही कर्मों के अनुपालन में आसक्त होता है, वैसा मनुष्य कर्म फलों की सभी इच्छाओं का त्याग करने के कारण योग मार्ग में आरूढ़ कहलाता है।

Commentary

जब मन भगवान में अनुरक्त हो जाता है तब यह स्वतः संसार से विरक्त हो जाता है। अतः किसी के मन की दशा का मूल्यांकन यह निरीक्षण करके किया जा सकता है कि क्या उसका मन सभी प्रकार की लौकिक कामनाओं के चिन्तन से मुक्त हो गया है? वही व्यक्ति संसार से विरक्त समझा जाता है जो न तो भौतिक सुखों की लालसा करता है और न ही उन्हें पाने के लिए कर्म करता है। ऐसा व्यक्ति इन्द्रिय सुखों को उत्पन्न करने वाले अवसरों की खोज करना बंद कर देता है और अंततः विषय भोग से सुख पाने के सभी विचारों का शमन कर देता है तथा सभी पुराने सुखों की स्मृतियों को मिटा देता है। तब मन निजी स्वार्थों की तुष्टि हेतु किसी बहकावे में कभी नहीं फँसता। जब हम मन पर इस तरह शासन करने की अवस्था पा लेते हैं तभी हम योग में उन्नत माने जाते हैं।

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Swami Mukundananda

6. ध्यानयोग

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